ॐ पृथ्वीदेव्यै विद्महे सहस्रमूर्तयै धीमहि तन्नो पृथ्वी: प्रचोदयात्।। ॐ पृथ्वीदैव्यै विद्महे धराभूर्तये धीमहि तन्नः पृथ्वी प्रचोदयात्। ॐ समुद्र वसने देवी पर्वतस्तन मंडिते। विष्णुपत्नीं नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व में।।
एक ब्राह्मणी थी। वह बहुत धार्मिक महिला थी। सभी ग्रामवासी उसका बहुत सम्मान करते थे। कोई भी उसकी शरण में आता वह सबकी मदद किया करती थी। मन ही मन भगवान का स्मरण किया करती थी। भगवान की सेवा पूजा व जरूरतमन्दो की सेवा ही उसका परम धर्म था। एक दिन ब्राह्मणी मर कर भगवान के घर गई।
स्वर्ग से एक दूत आया और बोला, ब्राह्मणी आपको क्या चाहिए। वो बोली मुझे बैकुंठ का रास्ता बता दो। आगे आगे दूत और पीछे ब्राह्मणी मन्दिर तक गये, ब्राह्मणी बहुत धार्मिक महिला थी, उसने बहुत दान-पुण्य कर रखा था, उसे विश्वास था की उसके लिए बैकुंठ का रास्ता अवश्य खुल जायेगा।
ब्राह्मणी ने वहाँ जाकर देखा वहाँ बड़ा सा मन्दिर, सोने का सिंहासन, हीरे मोती से जडित छतरी थी। चित्रगुप्त जी न्याय सभा में बठे साक्षात् इन्द्र के समान सौभा पा रहे थे और न्याय नीति से अपना राज्य सम्भाल रहे थे। यमराज जी सबको कर्मानुसार दंड दे रहे थे। ब्राह्मणी ने जाकर प्रणाम किया और बोली मुझे वैकुण्ठ जाना हैं।
चित्रगुप्त ने लेखा सुनाया और कहां की ब्राह्मणी तुमने सब धर्म किये परंतु धरती माता की कहानी नहीं सुनी इसलिए तुम्हारे सिर पर धरती माता का कर्ज हैं?
वैकुण्ठ में कैसे जायेगी ब्राह्मणी बोली - "धरती माता की कहानी के क्या नियम हैं?"
चित्रगुप्त जी जी बोले कोई एक साल, कोई छ: महीने, कोई सात दिन ही सुने पर धरती माता की कहानी अवश्य सुने फिर उसका उद्यापन कर दे।