ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं स: सूर्याय नम:
ऊँ आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यण्च ।हिरण्य़येन सविता रथेन देवो याति भुवनानि पश्यन ।।
ऊँ घृणि: सूर्यादित्योमऊँ घृणि: सूर्य आदित्य श्रीऊँ ह्रां ह्रीं ह्रौं स: सूर्याय: नम:ऊँ ह्रीं ह्रीं सूर्याय नम:
ऊँ घृणि सूर्याय नम:
जपाकुसुम संकाशं काश्यपेयं महाद्युतिम ।तमोsरिं सर्वपापघ्नं प्रणतोsस्मि दिवाकरम ।।
सर्व मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु रविवार (भगवान सूर्य) का व्रत श्रेष्ठ है। इस व्रत की विधि इस प्रकार है। प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त हो स्वच्छ वस्त्र धारण करें। शान्तचित्त होकर परमात्मा का स्मरण करें। भोजन एक समय से अधिक नहीं करना चाहिए। भोजन तथा फलाहार सूर्य का प्रकाश रहते कर लेना चाहिए। यदि निराहार रहने पर सूर्य छिप जाए तो दूसरे दिन सूर्य उदय हो जाने पर अर्घ्य देने के बाद ही भोजन करें। व्रत के अंत में सूर्य व्रत की कथा सुननी चाहिए। व्रत के दिन नमकीन तेलयुक्त, भोजन कदापि ग्रहण न करें। इस व्रत के करने से मान-सम्मान बढ़ता है तथा शत्रुओं का क्षय होता है। आँख की पीड़ा के अतिरिक्त अन्य सब पीड़ाएँ दूर होती हैं।
एक बुढ़िया माई थी। उनका एक बहुत ही सरल सा नियम था कि प्रति रविवार को सवेरे ही स्नान आदि कर, पड़ोसन की गाय के गोबर से घर को लीपकर फिर भोजन तैयार कर भगवान को भोग लगा स्वयं भोजन करती थी। ऐसा व्रत करने से उसका घर धन-धान्य एवं आनन्द से पूर्ण था। इस तरह कुछ दिन बीत जाने पर उसकी पड़ोसन विचार करने लगी कि यह वृद्धा सर्वदा मेरी गौ का गोबर ले जाती है। इसिलए वह अपनी गाय को घर के भीतर बाँधने लगी। बुढ़िया को गोबर न मिलने से रविवार के दिन वह अपने घर को न लीप सकी। इसलिए उसने न तो भोजन बनाया और न भगवान भोग लगाया तथा स्वयं भी उसने भोजन नहीं किया। इस प्रकार उसने निराहार व्रत किया।
रात हो गई और वह भूखी सो गई। रात में भगवान ने उसे स्वप्न में दर्शन दिए और भोजन न बनाने तथा भोग न लगाने का कारण पूछा। बुढ़िया माई ने कहा, आज मुझे घर लीपने के लिए गाय का गोबर नहीं मिला जिससे, हमारा घर शुन्ध नहीं हुआ जिससे मै खाना भी नहीं बना पाई और न ही आपको भोग लगा पाई। तब भगवान ने कहा- 'माता! हम तुमको ऐसी गाय देते हैं जिससे सभी इच्छाएँ पूर्ण होती हैं। क्योंकि तुम हमेशा रविवार को गाय के गोबर से घर लीपकर भोजन बनाकर मेरा भोग लगाकर खुद भोजन करती हो। इससे मैं खुश होकर तुमको यह वरदान देता हूँ तथा अन्त समय में मोक्ष देता हूँ।' स्वप्न में ऐसा वरदान में देकर भगवान अंतर्ध्यान हो गए और जब वृद्धा की आँख खुली तो वह देखती है कि आँगन में एक अति सुंदर गाय और बछड़ा बंधे हुए हैं। वह गाय और बछड़े को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुई और उनको घर के बाहर बाँध दिया। वहीं खाने का चारा डाल दिया।
जब उसकी पड़ोसन ने बुढ़िया के घर के बाहर एक अति सुंदर गाय और बछड़े को देखा तो द्वेष के कारण उसका हृदय जल उठा तथा जब उसने देखा कि गाय ने सोने का गोबर किया है तो वह उस गाय का गोबर ले गई और अपनी गाय का गोबर उसकी जगह पर रख गई। वह नित्यप्रति ऐसा करती रही और सीधी-साधी बुढ़िया को इसकी खबर नहीं होने दी। तब सर्वव्यापी ईश्वर ने सोचा कि चालाक पड़ोसन के कर्म से बुढ़िया ठगी जा रही है। भगवान ने संध्या के समय अपनी माया से बड़े ज़ोर की आँधी चला दी। बुढ़िया ने अंधेरी के भय से अपनी गाय को घर के भीतर बाँध लिया। प्रातः काल उठकर जब वृद्धा ने देखा कि गाय ने सोने का गोबर दिया है तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही और वह प्रतिदिन गाय को घर के भीतर बाँधने लगी।
उधर पड़ोसन ने देखा कि बुढ़िया गऊ को घर के भीतर बाँधने लगी है और उसका सोने का गोबर उठाने का दाँव नहीं चलता तो वह ईर्ष्या से जल उठी और कुछ उपाय न देख उसने उस देश के राजा की सभा में जाकर कहा- 'महाराज! मेरे पड़ोस में एक वृद्धा के पास ऐसी गाय है जो आप जैसे राजाओं के ही योग्य है। वह रोज़ सोने का गोबर देती है। आप उस सोने से प्रजा का पालन कीजिए। वह वृद्धा इतने सोने का क्या करेगी ?' राजा ने यह बात सुन अपने दूतों को वृद्धा के घर से गाय लाने की आज्ञा दी। वृद्धा प्रातः ईश्वर का भोग लगा भोजन ग्रहण करने ही जा रही थी कि राजा के कर्मचारी गाय खोलकर ले गए। वृद्धा काफी रोई-चिल्लाई किंतु कर्मचारियों के समक्ष कोई क्या कहता ? उस दिन वृद्धा गाय के वियोग में भोजन न खा सकी और रात-भर रो रोकर ईश्वर से गाय को पुनः पाने के लिए प्रार्थना करती रही।
उधर राजा गाय को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। लेकिन सुबह जैसे ही वह उठा सारा महल गोबर से भरा दिखाई देने लगा। राजा यह देखकर घबरा गया। भगवान ने रात में राजा से स्वप्न में कहा- 'राजा! गाय वृद्धा को लौटाने में ही तेरा भला है। उसके रविवार के व्रत से प्रसन्न होकर मैंने उसे गाय दी थी।' प्रातः होते ही राजा ने वृद्धा को बुलाकर बहुत से धन के साथ सम्मान सहित गाय व बछड़ा लौटा दिए। उसकी पड़ोसन को बुलाकर उचित दण्ड दिया गया। इतना करने के बाद राजा के महल से गंदगी दूर हो गई।
उसी दिन से राजा ने नगरनिवासियों को आदेश दिया कि राज्य की तथा अपनी समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए रविवार को व्रत करो। व्रत करने से नगर के लोग सुखी जीवन व्यतीत करने लगे। कोई भी बीमारी तथा प्रकृति का प्रकोप उस नगर पर नहीं होता था। सारी प्रजा सुख से रहने लगी।