किसी गाँव में एक साहूकार रहता था जिसके घर में अन्न, वस्त्र और धन किसी चीज़ की कमी नहीं थी। परंतु उसकी पत्नी बहुत ही कृपण थी। वह किसी भिक्षार्थी को कुछ नहीं देती थी। सारे दिन घर के काम काज में लगी रहती थी। एक बार एक साधु महात्मा बृहस्पतिवार के दिन उसके द्वार पर आए और भिक्षा की याचना की। वह उस समय घर के आँगन को लीप रही थी। इस कारण साधु महात्मा से कहने लगी 'महाराज! इस समय तो मैं घर को लीप रही हूँ। आपको कुछ नहीं दे सकती। फिर किसी समय आ जाना।' साधु महात्मा खाली हाथ चले गए।
कुछ दिन के बाद वही साधु महात्मा फिर आए और उसी तरह भिक्षा माँगी। साहूकारनी उस समय अपने बेटे को खिला रही थी। वह कहने लगी- 'महाराज! मैं क्या करूँ ? मेरे पास समय नहीं है। इसलिए आपको भिक्षा नहीं दे सकती।' तीसरी बार साधु महात्मा आए तो उसने उन्हें उसी तरह टालना चाहा परंतु साधु महात्मा कहने लगे- 'यदि तुमको बिल्कुल ही अवकाश हो जाए तो मुझको भिक्षा दोगी?' साहूकारनी कहने लगी- 'हाँ महाराज! यदि ऐसा हो जाए तो आपकी बड़ी कृपा होगी।' साधु महात्मा कहने लगे- 'अच्छा, मैं एक उपाय बताता हूँ। तुम बृहस्पतिवार को दिन चढ़ने पर उठो और सारे घर में झाडू लगाकर कूड़ा एक कोने में जमा करके रख दो घर में चौका इत्यादि मत लगाओ। फिर स्नानादि करके घरवालों से कह दो उस दिन सब हजामत अवश्य बनवाएँ। रसोई बनाकर चूल्हे के पीछे रखा करो। सामने कभी न रखो। सायंकाल को अंधेरा होने के बाद दीपक जलाया करो तथा बृहस्पतिवार को पीले वस्त्र मत धारण करो, न पीले रंग की चीज़ों का भोजन करो। यदि ऐसा करोगी तो तुमको घर का कोई काम नहीं करना पड़ेगा।' साहूकारनी ने ऐसा ही किया।
कुछ समय बाद उसके घर में खाने को दाना न रहा। थोड़े ही दिनों में वही साधु महात्मा फिर आए और भिक्षा माँगी। साहूकारनी ने कहा 'महाराज! मेरे घर में खाने को अन्न नहीं है। आपको क्या दूँ ?' तब साधु महात्मा ने कहा- 'जब तुम्हारे घर में सब कुछ था तब भी तुम कुछ नहीं देती थीं। अब पूरा-पूरा अवकाश है तब भी कुछ नहीं दे रही हो। तुम क्या चाहती हो ? वह कहो।' तब साहूकारनी ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की- 'महाराज! अब आप कोई ऐसा उपाय बताओ कि मेरे पास पहले जैसा धन-धान्य हो जाए। अब मैं प्रतिज्ञा करती हूँ कि अवश्यमेव जैसा आप कहेंगे वैसा ही करूँगी।' तब साधु महात्मा ने कहा- 'बृहस्पतिवार को प्रातः काल उठकर स्नानादि से निवृत्त हो घर को गौ के गोबर से लीपो तथा घर के पुरुष हजामत न बनवाएँ। भूखों को अन्न-जल देती रहा करो। ठीक सायंकाल दीपक जलाओ। यदि ऐसा करोगी तो तुम्हारी सब मनोकामनाएँ भगवान बृहस्पतिजी की कृपा से पूर्ण होंगी।' साहूकारनी ने ऐसा ही किया और उसके घर में धन-धान्य वैसा ही हो गया जैसा कि पहले था।
एक दिन इन्द्र बड़े अहंकार से अपने सिंहासन पर बैठे थे और बहुत से देवता, ऋषि, गंधर्व, किन्नर आदि सभा में उपस्थित थे। जिस समय बृहस्पतिजी वहाँ पर आए तो सबके सब उनके सम्मान के लिए खड़े हो गए, परंतु इन्द्र गर्व के मारे खड़ा न हुआ। यद्यिप वह सदैव उनका आदर किया करता था। बृहस्पतिजी अपना अनादर समझते हुए वहाँ से उठकर चले गए। तब इन्द्र को बड़ा शोक हुआ कि मैंने गुरुजी का अनादर कर दिया। मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई। गुरुजी के आशीर्वाद से ही मुझका यह वैभव मिला है। उनके क्रांध से यह सब नष्ट हो जाएगा। इसलिए उनके पास जाकर उनसे क्षमा माँगनी चाहिए। ऐसा विचार कर इन्द्र उनके स्थान पर गए। जब बृहस्पतिजी ने
अपने योगबल से यह जान लिया कि इन्द्र क्षमा माँगने के लिए यहाँ पर आ रहा है तब क्रोधवश उससे भेंट करना उचित न समझकर अंतर्ध्यान हो गए। जब इन्द्र ने बृहस्पतिजी को न देखा तब निराश होकर लौट आए। जब दैत्यों के राजा वृषवर्मा को यह समाचार विदित हुआ तो उसने अपने गुरु शुक्राचार्य की आज्ञा से इन्द्रपुरी को चारों तरफ से घेर लिया। गुरु की कृपा न होने के कारण देवता हारने व मार खाने लगे। तब उन्होंने ब्रह्माजी को पूर्वक सब वृत्तांत सुनाया और कहा 'महाराज! दैत्यों से किसी प्रकार बचाइए।' तब ब्रह्माजी कहने लगे 'तुमने बहुत बड़ा अपराध किया है जो गुरुदेव को क्रोधित कर दिया। अब तुम्हारा कल्याण इसी में हो सकता है कि त्वष्टा ब्राह्मण का पुत्र विश्वरूप बड़ा तपस्वी और ज्ञानी है। उसे अपना पुरोहित बनाओ तो तुम्हारा कल्याण हो सकता है।'
यह वचन सुनते ही इन्द्र त्वष्टा के पास गए और बड़े विनीत भाव से त्वष्टा से कहने लगे- 'आप हमारे पुरोहित बनिए जिससे हमारा कल्याण हो। तब त्वष्टा ने उत्तर दिया- 'पुरोहित बनने से तपोबल घट जाता है, परंतु तुम बहुत विनती कर रहे हो, इसलिए मेरा पुत्र विश्वरूप पुरोहित बनकर तुम्हारी रक्षा करेगा।' विश्वरूप ने पिता की आज्ञा से पुरोहित बनकर ऐसा यत्न किया कि हरि इच्छा से इन्द्र वृषवर्मा को युद्ध में जीतकर अपने इन्द्रासन पर स्थित हुआ। विश्वरूप के तीन मुख थे। एक मुख से वह सोमपल्ली लता का रस निकालकर पीते थे। दूसरे मुख से वह मदिरा पीते और तीसरे मुख से अन्नादि भोजन करते थे। इन्द्र ने कुछ दिनों के बाद कहा- 'मैं आपकी कृपा से यज्ञ करना चाहता हूँ।' जब विश्वरूप की आज्ञानुसार यज्ञ प्रारंभ हो गया तब एक दैत्य ने विश्वरूप से कहा 'तुम्हारी माता दैत्य की कन्या है इस कारण हमारे कल्याण के निमित्त एक आहुति दैत्यों के नाम पर भी दे दिया करो तो अति उत्तम बात है।'
विश्वरूप उस दैत्य का कहा मानकर आहुति देते समय दैत्य का नाम धीरे से लेने लगा। इसी कारण यज्ञ करने से देवताओं का तेज नहीं बढ़ा। इन्द्र ने यह वृत्तांत जानते ही क्रोधित होकर विश्वरूप के तीन सिर काट डाले। मद्यपान करने वाले से भँवरा, सोमपल्ली पीने वाले से कबूतर और अन्न खाने वाले मुख से तीतर बन गया। विश्वरूप के मरते ही इन्द्र का स्वरूप ब्रह्महत्या के प्रभाव से बदल गया। देवताओं के एक वर्ष पश्चाताप करने पर भी ब्रह्महत्या का वह पाप न छूटा तो सब देवताओं के प्रार्थना करने पर ब्रह्माजी बृहस्पतिजी सहित वहाँ आए। उस ब्रह्महत्या के चार भाग किए। उनमें से एक भाग पृथ्वी को दिया। इस कारण कहीं-कहीं धरती ऊँची-नीची और बीज बोने लायक भी नहीं होती। साथ ही ब्रह्माजी ने यह वरदान दिया जहाँ पृथ्वी में गड्ढ़ा होगा, कुछ समय पाकर वह स्वयं भर जाएगा। दूसरा वृक्षों को दिया, जिससे उनमें से गोंद बनकर बहता है। इस कारण गूगल के अतिरिक्त सब गोंद अशुद्ध समझे जाते हैं। वृक्षों को यह भी वरदान दिया कि ऊपर से सूख जाने पर जड़ फिर से फूट जाएगी। तीसरा भाग स्त्रियों को दिया, इसी कारण स्त्रियाँ हर महीने रजस्वला होकर पहले दिन चांडालिनी, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी, तीसरे दिन धोबिन के समान रहकर चौथे दिन शुद्ध होती हैं और संतान प्राप्ति का उनको वरदान दिया। चौथा भाग जल को दिया जिससे फेन और सिवाल आदि जल के ऊपर आ जाते हैं। जल को यह वरदान भी मिला कि जिस चीज में डाला जाएगा वह बोझ में बढ़ जाएगी। इस प्रकार इन्द्र को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त किया। जो मनुष्य इस कथा को पढ़ता या सुनता है उसके सब पाप बृहस्पतिजी महाराज की कृपा से नष्ट होते हैं।