चैत्र के कृष्ण पक्ष की एकादशी को मनाई जाने वाली पापमोचनी एकादशी चेतन या अचेतन सभी पापों से मुक्ति प्रदान करती है। इस पवित्र दिन पर, भक्त उपवास करते हैं और षोडशोपचार पूजा, अर्घ्य देकर और दिव्य अनुष्ठान करके भगवान विष्णु का सम्मान करते हैं।
प्राचीन समय में चैत्ररथ नामक अति रमणीक वन था। इसी वन में देवराज इन्द्र गंधर्व कन्याओं तथा देवताओं सहित स्वच्छंद विहार करते थे। मेधावी नामक ऋषि भी यहीं तपस्या करते थे। ऋषि शैवोपासक तथा अप्सराएँ शिवद्रोहिणी अनंग दासी (अनुचरी) थीं। एक समय का प्रसंग है कि रतिनाथ कामदेव ने मेधावी मुनि की तपस्या भंग करने के लिए मंजुघोषा नामक अप्सरा को नृत्य-गान करने के लिए उनके सम्मुख भेजा।
युवावस्था वाले ऋषि अप्सरा के हाव-भाव, नृत्य, गीत तथा कटाक्षों पर काम से मोहित हो गए। रति-क्रीड़ा करते हुए 57 वर्ष बीत गए। मंजुघोषा ने एक दिन अपने स्थान पर जाने की आज्ञा माँगी। आज्ञा माँगने पर मुनि के कानों पर चींटी दौड़ीं तथा उन्हें आत्मज्ञान हुआ। अपने को रसातल में पहुँचाने का एकमात्र कारण अप्सरा मंजुघोषा को समझकर मुनि ने उसे पिशाचिनी होने का शाप दे दिया।
शाप सुनकर मंजुघोषा ने वायु द्वारा प्रताड़ित कदली वृक्ष की भाँति काँपते हुए मुक्ति का उपाय पूछा। तब मुनि ने पापमोचिनी एकादशी का व्रत रखने को कहा। वह विधि-विधान बताकर मेधावी ऋषि पिता च्यवन के आश्रम में गए। शाप की बात सुनकर च्यवन ऋषि ने पुत्र की घोर निंदा की तथा उन्हें चैत्र मास की पापमोचनी एकादशी का व्रत करने की आज्ञा दी। व्रत करने के प्रभाव से मंजुघोषा अप्सरा पिशाचिनी देह से मुक्त हो सुंदर देह धारण कर स्वर्गलोक को चली गई।